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जेनेवा समझौता (Geneva Accords) शीत युद्ध के दौरान हुए अंतर्राष्ट्रीय राजनैतिक घटनाक्रमों में एक अत्यंत महत्वपूर्ण समझौता था। यह समझौता मुख्य रूप से 1954 में वियतनाम को लेकर हुआ था, हालांकि इसके अंतर्गत लाओस और कम्बोडिया से जुड़े विषयों पर भी चर्चा की गई थी। इस समझौते ने उपनिवेशवाद, स्वतंत्रता संग्राम और महाशक्तियों के बीच चल रहे प्रभुत्व के संघर्ष को नया मोड़ दिया।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद विश्व दो धड़ों में बंट गया था – एक ओर था पश्चिमी पूंजीवादी गुट (जिसका नेतृत्व अमेरिका करता था) और दूसरी ओर था पूर्वी साम्यवादी गुट (जिसका नेतृत्व सोवियत संघ करता था)। इसी दौरान उपनिवेशों में स्वतंत्रता की लहर चल रही थी। वियतनाम फ्रांसीसी उपनिवेश था और वहां हो ची मिन्ह के नेतृत्व में कम्युनिस्टों द्वारा स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया जा रहा था।
1946 से 1954 तक वियतनाम में फ्रांस और हो ची मिन्ह की सेना (वियेत मिंह) के बीच भीषण युद्ध चला, जिसे फ्रांसीसी-वियतनाम युद्ध (या पहला इंडोचाइना युद्ध) कहा गया। यह युद्ध 1954 में डायन बिएन फू (Dien Bien Phu) की लड़ाई में फ्रांसीसी सेना की हार के साथ समाप्त हुआ। इसी परिप्रेक्ष्य में जेनेवा में एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन बुलाया गया।
जेनेवा समझौता 26 अप्रैल 1954 को स्विट्ज़रलैंड के जेनेवा शहर में प्रारंभ हुए सम्मेलन का परिणाम था। यह सम्मेलन 21 जुलाई 1954 तक चला। इस सम्मेलन का आयोजन मुख्य रूप से इंडोचाइना में शांति स्थापित करने के उद्देश्य से किया गया था।
इस सम्मेलन में दुनिया के कई प्रमुख देशों ने भाग लिया। इनमें शामिल थे:
इनके अतिरिक्त कुछ अन्य देशों ने भी पर्यवेक्षक के रूप में भाग लिया। अमेरिका ने औपचारिक रूप से समझौते पर हस्ताक्षर नहीं किए लेकिन उसने इसका "सम्मान" करने की घोषणा की।
1954 के जेनेवा समझौते के अंतर्गत निम्नलिखित महत्वपूर्ण निर्णय लिए गए:
वियतनाम का विभाजन –
वियतनाम को अस्थायी रूप से 17वें समानांतर रेखा (17th Parallel) के आधार पर दो भागों में विभाजित किया गया:
चुनावों की योजना –
यह निर्णय लिया गया कि 1956 में पूरे वियतनाम में स्वतंत्र और निष्पक्ष आम चुनाव कराए जाएंगे, जिसके द्वारा देश को फिर से एकजुट कर दिया जाएगा। परंतु यह चुनाव कभी नहीं हुए, जिससे आगे चलकर वियतनाम युद्ध की नींव पड़ी।
विदेशी सेनाओं की वापसी –
फ्रांस और अन्य विदेशी सेनाओं को वियतनाम, लाओस और कम्बोडिया से वापस बुलाया जाना था।
लाओस और कम्बोडिया की स्वतंत्रता –
इन दोनों देशों को स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में मान्यता दी गई और वियतनामी सेनाओं को वहां से हटाया गया।
गैर-हस्तक्षेप की नीति –
सभी हस्ताक्षरकर्ता देशों ने इस बात पर सहमति जताई कि वे वियतनाम, लाओस और कम्बोडिया के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेंगे।
औपनिवेशिक युग का अंत –
इस समझौते के माध्यम से इंडोचाइना में फ्रांस के उपनिवेशवाद का अंत हुआ। वियतनाम, लाओस और कम्बोडिया ने औपचारिक रूप से स्वतंत्रता प्राप्त की।
शीत युद्ध का प्रभाव –
समझौता शांति स्थापना का प्रयास था लेकिन यह शीत युद्ध के संदर्भ में एक अस्थायी समाधान मात्र बनकर रह गया। अमेरिका और सोवियत संघ के बीच की विचारधारात्मक खाई इस समझौते में भी स्पष्ट रूप से दिखी।
वियतनाम युद्ध की भूमिका –
चूंकि 1956 में प्रस्तावित चुनाव नहीं हुए और दोनों पक्षों (उत्तरी और दक्षिणी वियतनाम) में विरोध बढ़ता गया, परिणामस्वरूप 1960 के दशक में वियतनाम युद्ध (Vietnam War) छिड़ गया, जिसमें अमेरिका ने सीधा हस्तक्षेप किया।
एशियाई राजनीति में परिवर्तन –
यह समझौता एशिया में महाशक्तियों की भूमिका को दर्शाता है। चीन, सोवियत संघ और अमेरिका की नीति और उनकी सक्रिय भागीदारी इस क्षेत्र को वैश्विक शक्ति संघर्ष का केन्द्र बना देती है।
जेनेवा समझौता 1954 एक ऐतिहासिक प्रयास था जो उपनिवेशवाद से मुक्ति दिलाने और एशिया में शांति स्थापना के उद्देश्य से किया गया था। हालांकि यह कुछ हद तक सफल रहा, लेकिन इसकी अस्थायी प्रकृति और विचारधारात्मक मतभेदों के कारण यह दीर्घकालीन समाधान सिद्ध नहीं हो सका। इस समझौते ने वियतनाम को स्वतंत्रता दिलाई लेकिन उसे दो भागों में बांटकर एक और बड़े संघर्ष की भूमिका तैयार कर दी। यह समझौता शीत युद्ध की राजनीति, औपनिवेशिक विरासत और नवस्वतंत्र राष्ट्रों की जटिलताओं को समझने की एक महत्वपूर्ण कुंजी भी है।
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