दहेज़ लेना व देना दोनों ही कानूनन जुर्म है, परन्तु आज भी कई ऐसे परिवार हैं व लोग हैं जो परम्परा के नाम पर दहेज़ लेते हैं व देते हैं | भारत में बच्ची के जन्म से ही माता पिता को यह चिंता सताने लगती है की अब उसकी शादी के लिए धन जमा करना है | यह मानसिकता हर परिवार की नहीं हो सकती परन्तु देश की आधी से ज्यादा जनसख्या इसी मानसिकता से विकृत है | विकृत इसलिए है क्योंकि जहां एक तरफ बेटा इन उम्मीदों से बड़ा किया जाता है की वह बड़ा होकर परिवार का सहारा बनेगा वहीं बेटी को यह समझा बुझा कर बड़ा किया जाता है की उसे दूसरे घर जाना है |
दहेज़ के लेन देन में गलती तो दोनों ही पक्षों की होती है जो दहेज़ ले रहा हो उसकी भी और जो दे रहा हो उसकी भी परन्तु समझने की बात यह है की अत्यधिक गलती किसकी है और क्यों है | मेरी नज़र में अत्यधिक गलती लड़की के माता पिता की है | मांगने वाले की सोच बदलने के लिए देने वाले को अपनी सोच बदलना ज्यादा ज़रूरी है | यदि माता पिता अपनी बेटी को जन्म से ही यह सोचकर बड़ा करे की उन्हें उसे उसके खुद के पैरों पर खड़ा करना है , दहेज़ की जगह उसकी शिक्षा और सपनो को पूरा करने के लिए पैसे जमा करें और किसी ओर के घर को संवारने के सपने दिखने के पूर्व उसकी खुद की ज़िन्दगी संवारने का ज्ञान उसे दे तो बेटी क्या नहीं कर सकती | अगर वह अपने खुद के पैरों पर खड़ी होगी तो उसको अपनी जरूरतें पूरी करने के लिए किसी और के सहारे की जरूरत नहीं होगी और न ही लड़के वालो को यह सोचकर दहेज देना पड़ेगा की वह आपकी बेटी की जरूरतें व ख्वाहिशे तभी पूरी कर पाएंगे जब आप उन्हें पैसे देंगे | भारत में दहेज़ देने के बाद भी हर दिन एक लड़की मौत के मुँह में जाती है |तो यह सोचना की बेटी दहेज़ देकर खुश रहेगी , पूर्णतया गलत है
दहेज़ लेना व माँगना एक मानसिक विकृति है ओर यदि आपसे कोई यह कहे की उन्होंने अपने बेटे पर इतना पैसा लगाया तो आपका फ़र्ज़ बनता है दहेज़ देने का , या वह आपकी बेटी को अपने घर रखेंगे उसका दहेज़ , तो सबसे सही यही होगा की आप उन्हें दरवाजे का रास्ता दिखा दें |